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Thursday, November 28, 2019

नारी


नारी

नारी तुम खुद को पहचानो
बाहर छाया भीतर धूप
बिखरी – बिखरी मुस्कान लिए
सर्वस्व समर्पण सब पर तेरा

नारी तुम खुद को पहचानो

घूंट  - घूंट कर तुम क्यूं जीती हो
आहों से मुंह को सीती हो
भीतर  ही भीतर रोती हो
क्यों खुद से तुझे प्रीति नहीं है

नारी तुम खुद को पहचानो

खुद के लिए तुम कभी न संवरीं
खुद पर तुझे विश्वास नहीं क्यों
क्यूं कर खुद को बींधा तुमने
खुद पर तुम समर्पित नहीं क्यों

नारी तुम खुद को पहचानो

क्यूं कर भीतर ही भीतर घुटती हो
क्यूं कर रिश्तों में जकड़ी हो
खुद के अस्तित्व से मोह नहीं क्यों
खुद से खुद की परवाह नहीं क्यों

नारी तुम खुद को पहचानो

तुझ पर क्यूं न गर्व करे जग
इस जग की अनुपम कृति हो तुम
तुम से ही जग रोशन होता है
आँचल में तेरे प्रेम पलता है

नारी तुम खुद को पहचानो

वात्सल्य की पुण्यमूर्ति तुम
प्रेम विस्तार का अथाह सागर तूम
तुमसे ही प्रेम पुष्पित होता है
 तुझसे ही जग रोशन होता है  

नारी तुम खुद को पहचानो

मातृत्व का समंदर आँचल में समेटे
विस्तार जगत का करती हो तुम
संस्कृति , संस्कारों की पोषक तुम
तुमसे ही घर   घर होता है

नारी तुम खुद को पहचानो

कभी दया का सागर हो तुम
कभी प्यार का समंदर हो तुम
कभी हो बेटी, कभी प्रेयसी
समाज का उद्धार हो तुम

नारी तुम खुद को पहचानो

घर आँगन सब तुझसे रोशन
तेरी पायल करे है छन  - छन
तुझसे ही प्रेम पुष्पित होता है
तुझसे ही पुरुष पूर्ण होता है

नारी तुम खुद को पहचानो

नारी तुझको जागना होगा
एक नया जहां बसाना होगा
चीर समाज की कुरीतियों को
खुद से परिचय कराना होगा

नारी तुम खुद को पहचानो

जूती नहीं तुम पुरुष पैर की
न ही तुम सती बलिबेदी की
तुमको अपना स्वर्ग रचाना होगा
खुद पर विश्वास दिखाना होगा

नारी तुम खुद को पहचानो

खुद को पाकर हो जाओ गर्वित
क्यूं हो तुम खुद पर शर्मिंद
एक नया इतिहास बनाना होगा
आसमां पर खुद को सजाना होगा

नारी तुम खुद को पहचानो






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