Wednesday, January 29, 2020

ज़र्ज़र होती काया का क्या


ज़र्ज़र होती काया का क्या

ज़र्ज़र होती काया का क्या , मन में प्राण बसाकर देखो
जीवन है नाम संघर्ष का , खुद से प्रेम जताकर देखो

उस परम तत्व से आलिंगन कर, भक्ति की लौ जलाकर देखो
पावन हो जायेंगे तन - मन , मुक्ति का मार्ग सजाकर देखो

सुधर जाएगा लोक  - परलोक , प्रभु से मोह लगाकर देखो
अपने गीतों को करलो इबादत का जरिया, उस खुदा से दिल लगाकर देखो

कालिंदी सा पावन हो तन – मन , सत्कर्म मार्ग रोशन कर देखो
मानवता हो पावन कर्म तुम्हारा, इंसानियत की राह पर जाकर देखो

प्रेम खुदा है खुदा इबादत, उस खुदा से इश्क जताकर देखो
हर मानव में बसता खुदा है, सबसे प्रेम जताकर देखो

खुदा तुम्हारा तुम खुदा के, खुदा के दर पर जाकर देखो
जीवन की खुशियों के पल , खुदा के बन्दों पर लुटाकर देखो

जीवन क्यों हो मोह का दलदल , माया मोह भुलाकर देखो
क्या लाये थे क्या ले जाना, अपना धर्म निभाकर देखो

ये जीवन उस प्रभु की धरोहर , हर पल उसका चिंतन कर देखो
तुझमे हर पल बसता है वो, उस प्रभु की शरण में जाकर देखो


पैसे का खेल दुनिया


पैसे का खेल दुनिया

पैसे का खेल दुनिया, पैसे का खेल है
पैसा जो पास न हो , काहे का मेल है

पैसे को कहते लोग , हाथ का मेल हैं
पैसा जो पास न हो , काहे का मेल है

पैसों से रिश्ते हैं , पैसों से नाते हैं
पैसा जो पास न हो, रिश्ते टूट जाते हैं

पैसा जो पास हो, खोटे सिक्के भी चल जाते हैं
पैसा जो पास हो, नए रिश्ते बन जाते हैं

पैसे पर गिरते लोग, पैसे पर मरते हैं
पैसों की खातिर लोग, रिश्तों का खून करते हैं

पैसे की माया भी , अजब ही माया है
जिसने भी घमंड किया , उसे इसने रुलाया है

पैसों की गर्मी जब सिर पर चढ़ जाती है
आदमी की आदमियत उसी वक़्त खो जाती है

पैसों का जूनून कुछ भी करा सकता है
भाई को भाई का दुश्मन बना सकता है

पैसे को देख लोग मधुमक्खी की तरह लपकते हैं
भ्रम जो टूटता है तो औंधे मुंह गिरते हैं

पैसे के मकड़जाल में संसार उलझा हुआ है
अपनी ही अधोगति का कारण बना हुआ है ...........क्रमशः

रहस्यों से आबद्ध एक छवि


रहस्यों से आबद्ध एक छवि

रहस्यों से आबद्ध एक छवि
जिसका न आदि न अंत
एहसास का अंबर ही विश्वास
उसके होने का आभास

एक ऐसी छवि
जो रोटी भी है , हँसती भी है
उसकी पूर्णता का आभास

सुख में , दुःख में
चिंतन में , आध्यात्म में
विचरण कर रहा है वह
यहीं कहीं आसपास

टोह रहा है
कहीं कोई सत्मार्ग से
भटक तो नहीं गया
कहीं कोई क्रंदन की अवस्था में तो नहीं
या फिर
कोई जीवन की आस में
जीवन से जूझता

कहीं कोई
उसके आने के इंतज़ार में
स्वयं को पीड़ा तो नहीं दे रहा

आखिर
ये कैसी भूख है
जीवन संघर्ष से मुक्ति की
इस काया से मुक्ति की
जीवन चरमोत्कर्ष पर विराजने की
तो कहीं दूसरे छोर पर
जीवन माया के बंधन के
म्फ्पाश में बंधा हुआ
मोह माया का
मोह काया का
“अहं” से पीड़ित

भौतिक जगत को ही
जीवन के चरमोत्कर्ष का
मर्म समझता
सुख की परिभाषा से अनभिज्ञ
मोक्ष के अज्ञान से अनजान
काय सुख , माया सुख

भौतिक जगत के हर कण में
खोजता भौतिक सुख
यह भौतिक सुख
आध्यात्मिक सुख से परे
कहीं सुनसान घुप्प अँधेरे की ओर
प्रस्थित करता

जिन्दगी के मायने ही
समाप्त हो जाते
यूं ही भटकते रहने की लालसा
जीवन का अंतिम सत्य हो जाती

आखिर
मैं क्या हूँ ? क्यों हूँ? कौन हूँ ?
इस प्रश्नों के चिंतन से अभिज्ञ
स्वयं को सत्य से परे
कहीं दूर घसीटता
ज़र्ज़र अवस्था में
जीवन की अवस्थाओं को पार करता

जीवन के अंत को प्राप्त करता
पर अफ़सोस
जीवन का सत्य, अभी भी उससे दूर
उसे खाली हाथ लाया था जिस तरह
उसी तरह खाली हाथ
भेजने को विवश

चूंकि
काया का अध्ययन तो संभव हुआ
पर आध्यात्म ...........कहीं दूर
शून्य में स्वयं को खोजता .................

अभिव्यक्ति की चौपड़ पर (व्यंग्य)


अभिव्यक्ति की चौपड़ पर (व्यंग्य)

अभिव्यक्ति की चौपड़ पर
आज हम खड़े कहाँ हैं ?

अभिव्यक्ति विचारों की
क्या आज स्वतंत्र है ?
या फिर एक अजीब सा डर
हावी हो रहा है

विवश कर रहा है
कि चुप रहो !
गर चुप न रहे तो
चुप करा दिए जाओगे

हमेशा के लिए
न रहोगे तुम
न रहेगी तुम्हारी अभिव्यक्ति
इसलिए मूक बने रहो
देखते रहो
जो हो रहा है
दर्शक बन
साँसें रोक

यूं ही मूकदर्शक की तरह
और यदि
अभिव्यक्ति का
आनंद उठाना चाहते हो

तो
चले जाओ उस पाले में
अपनी मृत अंतरआत्मा के साथ
जहां
पापी भी साधू घोषित कर दिया जाता है
जहां
आपको पावन गंगा की तरह
निर्मल चरित्र बनाकर
 पेश किया जाता है

जहां
केवल राजा के दरबार में
राजा को खुश करने वाले
लतीफे सुनाये जाते हैं
जहां
राजा की बुराई
एक निंदनीय अपराध है

जहां एक भी अपशब्द
आपको
सागर की असीम गहराइयों में
कहीं गम कर देगा
अतः
चुप रहो
शांत रहो
क्यूं कर ? ............................


एक नई दुनिया


एक नई दुनिया

हम उस “एक नई दुनिया” की तरह
अग्रसर हो रहे हैं जहां
इंसान तो हैं पर
इंसानियत शून्य में झांकती नज़र आती है

हम उस “एक नई दुनिया” का
सुस्वप्न देख रहे हैं जहां
हर कोई व्यस्त है
अपनी ही दुनिया में
एक दूसरे से अनजान
शायद एक उपकरण “मोबाइल” की छाँव में

हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
मानव तो है
पर मानवता खुद को ही
ढोने पर मजबूर है
संवेदनाओं के अंत का
एक ज्वर सा आ गया है
लहरों की भागमभाग है
पर छोर कहाँ है? पता नहीं

हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
परिवार तो हैं
पर परिवार का हिस्सा होते चरित्र
रिश्तों की परिभाषा से
अनजान हैं
“वसुधैव कुटुम्बकम” को झुठलाते
ये चरित्र यूं ही विचरण कर रहे हैं
परिवार शब्द के दंभ के साथ

हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
धर्म के ठेकेदारों का
धर्म को ही अधर्म रुपी
राजनीति का अखाड़ा बना दिया है
धर्म से उठता विश्वास
शायद राजनीति में
 विश्वास जगाने लगा है

हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
मंदिरों एवं मस्जिदों में
मन्त्रों एवं अजान का आलाप सुनकर
जागने वाला मनुष्य
अब मोबाइल की
रिंगटोन पर जागने लगा है
मंत्र एवं अजान स्वयं के अस्तित्व पर
सोच में हैं
मंदिर की घंटियों का स्वर भी
अब सुनाई नहीं देता
न ही अजान की आवाज

हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
प्रकृति के अनुपन दृश्यों का
अवलोकन करने की
मन में उत्सुकता तो है
किन्तु हमने स्वयं के
अप्राकृतिक प्रयासों से
प्रकृति के अनुपन दृश्यों को
द्रश्यविहीन कर दिया है

हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
आज की युवा पीढ़ी
सदियन पुराने सुसंस्कृत
विचारों को तिलांजलि देने
की सलाह देकर
बुजुर्गों को जीने की
आधुनिक राह दिखाने का
असफल प्रयास करती
नज़र आ रही है

हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
शिक्षा , अपने मूल उद्देश्य से
पीछा छुड़ाती नज़र आ रही है
और
स्वयं के पेशेवर होने का
दंभ भारती नज़र आ रही है

हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
देवालय शून्य में झांकते
नज़र आ रहे हैं
भगवान् अपने भक्तों के
इंतजार में बाट जोह रहे हैं
और
दूसरी ओर
“बार” और “पब” में
“मस्ती की पाठशाला “ में लोग
जिन्दगी के वास्तविक सत्य
की खोज में प्रयासरत हैं
साथ ही जीवन के असीम
आनंद की खोज के प्रयास में भी

हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
बच्चे के पैदा होते ही
एक ऐसी पाठशाला की ओर
धकेल दिया जाता है
जहां से शायद वह
“पी एच डी” करके ही
घर वापस आयेगा   
या फिर कहें तो
एक बड़े पैकेज के साथ
आखिर
जीवन के किस पथ पर
अग्रसर हैं हम सब
शारीरिक रूप से अस्वस्थ
मानसिक रूप से अपरिपक्व

आधुनिक विचारों की
गठरी पीठ पर लादे हुए
सुसंस्कृत, सुसभ्य समाज की
संकल्पना को

अपने अप्राकृतिक कृत्यों से
साकार करने की एक असफल
कोशिश करते हुए
आखिर किस दुनिया की ओर
अग्रसर हो रहे हैं हम ?...............