चंद एहसास
मैं कब कवि और शायर हो गया , इसका मुझे एहसास ही न हुआ
मेरे दोस्तों , तुम्हारी ज़र्रा नवाज़ी का शुक्रिया
खिदमत उस खुदा की , और उसके बन्दों की
इसी मकसद को लिए , जी रहा हूँ मैं
दामन में सबके खुशियाँ , मेरे अल्ला हज़ार देना
बेज़ार जी रहे हैं जो , उन्हें खुशियाँ हज़ार देना
मुसाफिर चला है खोज में , अपनी मंजिल
खुदा उसका रहबर हो , ये आरज़ू है मेरी
“वंदना” उसकी करता हूँ , आज भी मैं
कभी वो खुदा रहे हैं , मेरी मुहब्बत का
“वंदना “ तुझको भूल जाऊं , यह आरज़ू नहीं है
मुहब्बत की बातों को तुम , खेल न समझना
मुहब्बत की कोई सुबह , और कोई शाम नहीं होती
ये तो वफ़ा
- ए - खुदाई है , कोई जाम तो नहीं
वफ़ा के बदले वफ़ा मिले , ये आरज़ू न कर
ये दुनिया मौकापरस्तों से , पट चुकी है
द्वारा
अनिल कुमार गुप्ता
केंद्रीय विद्यालय सुबाथू
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